Smt. Laxmi Devi And 3 Others Vs. State Of U.P. And Another [Application under section 482 crpc no. 5688/2018] The High Court has held that “यदि परिवाद व साक्षियों के ब्यान में लगाये गये अविवादित आरोप से किसी भी अपराध का कृत्य का होना प्रकट नहीं होता हो या अपराध के आवश्यक अवयव उपस्थित नहीं हो तो यह न्यायालय अपनी अन्तर्निहित शक्तियों का उपयोग करते हुए आदेशिका (सम्मन) निरस्त कर सकता है”
Judgment
तथ्यात्मक प्रारुप
(क) आवेदक संख्या 1, श्रीमती लक्ष्मी देवी ने एक प्रथम सूचना रिपोर्ट संख्या 0311, दिनांक 29.03.2015 को, विपक्षी संख्या 2 व उसके अन्य रिश्तेदार के विरुद्ध, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302, 354, 498-ए, 511 के अंतर्गत आवेदन धारा 156 (3) दण्ड प्रक्रिया संहिता, दिनांक 05.01.2015 के कार्यवाही के उपरान्त दर्ज करवाई कि:-
“1. यह कि प्रार्थिनी का दामाद रमाशंकर कुशवाहा उसके भाई राजू, मनोज, शंकरलाल, लल्लन पुत्र रामनरायन तथा श्रीमती वीना कुशवाहा पत्नी मनोज कुशवाहा निवासिनी म0नं0 112 मसवानपुर थाना कल्यानपुर कानपुर नगर प्रार्थिनी की पुत्री श्रीमती बसन्ती पत्नी रमाशंकर को पिछले लगभग तीन साल से काफी ज्यादा प्रताड़ित करके उसके साथ अत्यधिक मारपीट करते थे तथा उसे आत्महत्या कर लेने के लिये उकसाते थे।
2. यह कि दामाद रमाशंकर के गलत सम्बन्ध एक महिला से होने के कारण प्रार्थिनी की पुत्री उसका विरोध करती थी किन्तु रमाशंकर का सहयोग उसके उक्त भाई करते थे। उक्त लोगों की जमीन एक्वायर होने के कारण सरकारी मुआवजा मिला है जिसके कारण उक्त सभी भाई आपस में बैठकर शराब भी पीते थे। तमाम लोगों के साथ जुआ भी खेलते थे।
3. यह कि मनोज कुशवाहा भी प्रार्थिनी की पुत्री पर गलत नजर रखता था लिहाजा उसके साथ शराब पीकर कई बार छेड़छाड़ भी कर चुका था व बलात्कार के प्रयास में भी था जानकारी पर प्रार्थिनी कई बार अपनी पुत्री के घर में जाकर पूर्व में कई दिनों तक रुकी भी थी। मनोज की पत्नी क्षेत्रीय सभासद है लिहाजा इन लोगों को स्थानीय पुलिस का संरक्षण भी प्राप्त है।
4. यह कि दिनांक 18.12.2014 को प्रार्थिनी को अज्ञात व्यक्ति से सूचना मिली की उक्त लोग प्रार्थिनी की पुत्री की हत्या की योजना बना रहे हैं। सूचना पर प्रार्थिनी अपने पुत्र के साथ तत्काल पुत्री बसन्ती की ससुराल करीब 2:30 बजे दिन पहुँची तो उक्त सभी लोग घर के अन्दर प्रार्थिनी की पुत्री को फांसी पर लटका रहे थे।
5. यह कि प्रार्थिनी की आहट पर सभी भाग खड़े हुए। प्रार्थिनी की पुत्री की हालत खराब थी। थोड़ा थोड़ा बोल पा रही थी तब उसने बताया कि देवर मनोज ने उसके साथ शराब पीकर बलात्कार का प्रयास किया है जिसकी शिकायत पर सभी लोगों को मनोज ने बरगलाया और परिवार को बेइज्जती से बचाने के लिए सभी ने मिलकर बसन्ती की हत्या करने के इरादे से आत्महत्या का रुप देने के लिये जबरिया फांसी पर लटका दिया।
6. यह कि उसने यह भी बताया कि रमाशंकर ने प्रार्थिनी की पुत्री को पकड़ा राजू व शंकरलाल ने पैर पकड़े, लल्लन ने भी लिपट कर पकड़ा मुह बन्द किया। बीना कुशवाहा ने फांसी का फन्दा गले में डाला था मनोज ने कड़े में रस्सी फंसा कर खींचा जिसमें उक्त सभी लोगों ने सहयोग किया।
7. यह कि प्रार्थिनी की पुत्री की हालत नाजुक थी तब तुरन्त प्रार्थिनी अपने पुत्र के साथ पास के अस्पताल ले गयी तथा अन्य लोगों व पुलिस को भी 100 नंबर पर सूचना दिया तब तक उसकी मृत्यु हो गयी।
8. यह कि मौके पर पुलिस आयी जहाँ पर पति रमाशंकर व उसके भाई आदि फरार थे बाद में पुलिस के कहने पर पुत्री बसन्ती को हैलट ले जाया गया जहाँ पर भी डाक्टरों ने उसे मृत बनाया।
9. यह कि प्रार्थिनी ने घटना की सूचना पुलिस को दिया तो पोस्टमार्टम के बाद कार्यवाही का आश्वासन दिया तब से लगातार प्रार्थिनी थाना कल्यानपुर दौड़ती रही किन्तु प्रार्थिनी का मुकदमा दर्ज नहीं किया गया। तब प्रार्थिनी द्वारा जरिये डाक प्रार्थनापत्र दिनांक 24.12.2014 श्रीमान् एस0एस0 पी0 साहब कानपुर नगर को व थानाध्यक्ष कल्यानपुर को प्रेषित किया तथा एस0एस0पी0 साहब से भी व्यक्तिगत रुप में मिली किन्तु आज तक प्रार्थिनी का मुकदमा दर्ज नहीं किया गया। उक्त अभियुक्त बीना कुशवाहा क्षेत्रीय सभासद है जिसके कारण थाना पुलिस उनके प्रभाव में होने के कारण मुकदमा दर्ज नहीं कर रही है। 10. यह कि न्यायहित में प्रार्थिनी का मुकदमा दर्ज कर विवेचना किये जाने हेतु थाना प्रभारी कल्यानपुर को आदेशित किया जाना न्यायोचित होगा।”
(ख) तदोपरान्त विपक्षी संख्या 2 ने, आवेदक संख्या 1 व उसके तीनों पुत्र (आवेदक संख्या 2 लगात् 4) के विरुद्ध एक प्रार्थना पत्र धारा 156(3) दं0प्र0सं0, दिनांक 21.01.2015 को न्यायालय सी.एम.एम. II, कानपुर नगर में भा0दं0सं0 की धारा 306, 384, 385, 506 के अंतर्गत दायर की कि:-
“2. यह कि प्रार्थी की शादी बसन्ती पुत्री स्व0 हीरालाल नि0-देवकलिया थाना अकबरपुर जिला कानपुर देहात से अर्सा करीबन 20 वर्ष पूर्व हुई थी प्रार्थी और बसन्ती के संसर्ग से एक पुत्र अभिषेक उम्र करीब 15 वर्ष पैदा हुआ जो प्रार्थी के पास है। प्रार्थी की पैत्रक जमीन एक्वायर होने के कारण प्रार्थी को मुआवजा धनराशि प्राप्त हुई थी उससे प्रार्थी की पत्नी बसन्ती ने अपनी माँ से 5 वर्ष पूर्व दो बीघा जमीन सम्पूर्ण विक्रय धनराशि अदा करके क्रय की थी। जो प्रार्थी की सास लक्ष्मी देवी के कब्जे में थी कुछ समय बाद प्रार्थी की सास श्रीमती लक्ष्मी देवी, साले श्रीपाल, रामपाल, शिवपाल की नीयत खराब हो गई और उक्त जमीन पर जबरन कब्जा कर लिया तथा प्रार्थी व प्रार्थी की पत्नी बसन्ती पर उक्त जमीन पुनः अपने नाम करने का दबाव देने लगे और मानसिक शारीरिक रुप से प्रार्थी की पत्नी बसन्ती को प्रताड़ित करने लगे तथा झूठे मुकदमें में बंद करा देने व हत्या कर देने की धमकी देने लगे उपरोक्त लोगों की प्रताड़ना से प्रार्थी की पत्नी बसन्ती मानसिक रुप से अस्वस्थ हो गयी।
दिनांक 18.12.14 को समय करीबन 2 बजे दिन में प्रार्थी की सास लक्ष्मी देवी पत्नी स्व0 हीरालाल, साले श्रीपाल, पुत्र स्व0 हीरालाल निवासीगण देवकलिया थाना अकबरपुर कानपुर देहात, रामपाल, शिवपाल, पुत्रगण स्व0 हीरालाल निवासी तरगांव थाना गजनेर जिला कानपुर देहात एकराय होकर प्रार्थी के घर पर आये और प्रार्थी की पत्नी बसन्ती पर उपरोक्त जमीन पुनः अपने नाम करने का दबाव दिया और तरह-तरह से प्रताड़िता किया और चले गये उपरोक्त लोगों की प्रताड़ना के कारण प्रार्थी की पत्नी बसन्ती ने उसी दिन समय करीबन 4 बजे दिन में कमरे में लगे पंखे से फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली उस समय प्रार्थी बैंक गया था वापस घर आने पर प्रार्थी ने अपनी पत्नी को कमरे में फांसी पर लटका पाया।
उपरोक्त लोग गायब थे। प्रार्थी ने अपने फोन नम्बर 7668759818 से उपरोक्त लोगों को पत्नी के फांसी लगाकर आत्महत्या कर लेने की सूचना दी और उपरोक्त घटना की सूचना प्रार्थी के भाई रविशंकर ने सम्बन्धित थाना कल्यानपुर में दी जिसके आधार पर प्रार्थी की पत्नी बसन्ती का प्रार्थी की सास लक्ष्मी देवी, साले श्रीपाल, रामपाल, शिवपाल की उपस्थिति में पंचनामा होकर दि0 19.12.14 को पोस्टमार्टम हुआ। प्रार्थी अपनी पत्नी बसन्ती की लाश प्राप्त कर उसका अंतिम संस्कार किया। मुहल्लेवालों द्वारा यह कहे जाने पर कि बसन्ती की आत्महत्या का कारण बसन्ती की माँ और भाई है।
उक्त बाते सुनकर प्रार्थी की सास लक्ष्मी देवी, साले श्रीपाल, रामपाल, शिवपाल उपरोक्त ने प्रार्थी की धमकी दी कि यदि आप हम लोगों के खिलाफ कोई कार्यवाही की तो हम तुम लोगों को झूठे संगीन मुकदमें में फंसाकर जेल में सड़वा देंगे और उक्त धमकी देते हुये चले गये। उपरोक्त घटना को अश्वनी मिश्रा दिनेश कुशवाहा नि0-मसवानपुर कानपुर नगर तथा अन्य मोहल्ले के लोगों ने देखा व सुना है।
3. यह कि प्रार्थी उपरोक्त घटना की रिपोर्ट लिखाने थाना कल्यानपुर गया जहाँ पर पुलिसवालों ने कहा कि जाँच में जो मुल्जिम होगा उसी के खिलाफ कार्यवाही की जायेगी। कहते हुये प्रार्थी को वापस कर दिया परन्तु रिपोर्ट आज तक नहीं लिखी गई। तब प्रार्थी ने दिनांक17.01.15 को एस0एस0 पी0 कानपुर नगर, एस0ओ0 कल्यानपुर, सी0ओ0 कल्यानपुर, डी0 आई0जी0 कानपुर जोन, कानपुर, डी0जी0पी0 उ0प्र0 शासन लखनऊ को पंजीकृत डाक से प्रार्थनापत्र दिये परन्तु फिर भी आज तक रिपोर्ट नहीं लिखी गई। प्रार्थना पत्र व रजिस्ट्री रसीदों की फोटोंप्रतियां साथ में संलग्न है।
4. यह कि प्रार्थी की पत्नी बसन्ती का पंचनामा दि0 19.12.14 को हुआ तथा पोस्टमार्टम भी दि0 19.12.14 को हुआ। फोटोकॉपियां साथ में संलग्न है।
5. यह कि सम्बन्धित थाना पुलिस प्रार्थी की रिपोर्ट दर्ज नहीं कर रही है जिससे प्रार्थी के पास श्रीमान जी के समक्ष प्रार्थनापत्र प्रस्तुत के अलावा अन्य कोई रास्ता रिपोर्ट लिखाने का नहीं रहा है।”
(ग) उक्त प्रार्थनापत्र पर ए.सी.एम.एम. (II), कानपुर नगर द्वारा आदेश दिनांक 06.02.2015 पारित किया गया कि, उक्त प्रार्थनापत्र को परिवाद के रुप में दर्ज किया जाता है व पत्रावली वास्ते अग्रिम कार्यवाही के लिए पेश हो।
(घ) उपरोक्त आदेशानुसार रमाशंकर (प्रतिपक्ष सं0 2) (वादी) का ब्यान धारा 200 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत, गवाह दिनेश व गवाह अश्वनि का ब्यान धारा 202 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत दर्ज करे गये। तद्उपरान्त आदेश दिनांक 27.02.2017 द्वारा धारा 384, 385, 506 भा0दं0सं0 के
अन्तर्गत दण्डनीय अपराध के मामले में आवेदकगणों को द्वारा समन आहूत किया गया। आदेश का प्रासंगिक भाग निम्न है-
“संक्षेप में परिवादपत्र के अनुसार कथानक इस प्रकार है कि प्रार्थी की शादी बसन्ती से अर्सा करीब 20 वर्ष पूर्व हुई थी प्रार्थी और बसन्ती के संसर्ग से एक पुत्र अभिषेक पैदा हुआ जो प्रार्थी के पास है। प्रार्थी की पैत्रक जमीन एक्वायर होने के कारण प्रार्थी को मुआवजा धनराशि प्राप्त हुई थी उससे प्रार्थी की पत्नी बसन्ती ने अपनी माँ से 05 वर्ष पूर्व दो बीघा जमीन सम्पूर्ण धनराशि अदा करके क्रय की थी, जो प्रार्थी के सास लक्ष्मी देवी के कब्जे में थी कुछ समय बाद प्रार्थी की सास लक्ष्मी देवी, साले श्रीपाल, रामपाल, शिवपाल की नीयत खराब हो गई और उक्त जमीन पर जबरन कब्जा कर लिया तथा प्रार्थी व प्रार्थी की पत्नी बसन्ती पर उक्त जमीन पुनः अपने नाम करने का दबाव देने लगे और मानसिक व शारीरिक रुप से प्रार्थी की पत्नी बसन्ती को प्रताड़ित करने लगे तथा झूठे मुकदमें में बंद करा देने व हत्या कर देने की धमकी देने लगे उपरोक्त विपक्षीगण की प्रताड़ना से प्रार्थी की पत्नी बसन्ती मानसिक रुप से अस्वस्थ हो गयी। दिनांक 18.12.14 को समय करीबन 2:00 बजे दिन में विपक्षीगण एकराय होकर प्रार्थी के घर पर आये और प्रार्थी की पत्नी बसन्ती पर उपरोक्त जमीन पुनः अपने नाम करने का दबाव दिया और तरह-तरह से प्रताड़िता किया और चले गये उपरोक्त लोगों की प्रताड़ना के कारण प्रार्थी की पत्नी बसन्ती ने उसी दिन समय करीबन 4:00 बजे दिन में कमरे में लगे पंखे से फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली, उस समय प्रार्थी बैंक गया था वापस घर आने पर प्रार्थी ने अपनी पत्नी को कमरे में फांसी पर लटका पाया। उक्त के बावत संबंधित थाने व उच्चाधिकारियों को सूचित किया गया किन्तु कोई कार्यवाही नहीं हुई पत्रावली पर उपलब्ध साक्ष्य बयान परिवादी अंतर्गत धारा-200 दं0प्र0सं0 एवं धारा-202 दं0प्र0सं0 के अन्तर्गत परीक्षित साक्षीगण दिनेश व अश्वनी मिश्रा की साक्ष्य के आधार पर प्रथम दृष्टया अभियुक्तगण श्रीमती लक्ष्मी देवी, श्रीपाल, रामपाल व शिवपाल के विरुद्ध धारा- 384, 385, 506 भा0दं0सं0 के तहत मामला बनता प्रकट होता है। अतः अभियुक्तगण उपरोक्त को तलब किया जाना न्यायोचित प्रकट होता है।”
(ङ) प्रकरण की पत्रावली के अनुसार आवेदक संख्या 1 की पुत्री व विपक्षी संख्या 2 की पत्नी जिसकी मृत्यु 18.12.2014 को हुई थी, उसके शव विच्छेदन आख्या के अभिमत के अनुसार उसकी मृत्यु का तत्काल कारण दम घुटना (asphyxia), बताया गया, जिसका कारण मृत्यु पूर्व (anti mortem) फाँसी (hanging) बताया गया।
(च) उपरोक्त आदेश वर्तमान प्रार्थना पत्र में आक्षेपित किया गया है। प्रति शपथपत्र व प्रत्युत्तर शपथपत्र दाखिल किये जा चुके हैं।
आवेदकगण का पक्ष
(क) आवेदकगण का पक्ष रखते हुए उनके विद्वान अधिवक्ता श्री राम कुमार पाल के कथन किया कि विपक्षी संख्या 2 व उसके परिवार के विरुद्ध धारा 156 (3) दं0प्र0सं0 (दिनांक 05.01.2015) के माध्यम से एक प्रथम सूचना रिपोर्ट संख्या 311 वर्ष 2015, दिनांक 29.03.2015 को धारा 302, 354, 376, 498-ए, 511 भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत दर्ज कराई, जिसकी विषयवस्तु का उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है, कि इन्होने उसकी पुत्री की कथित रुप से हत्या 18.12.2014 को कर दी व उसको कथित रुप से आत्महत्या का रुप दे दिया गया। आवेदक संख्या 1 द्वारा प्रार्थना पत्र दिनांक 05.01.2015 प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने के लिए दायर करने के तुरन्त बाद ही विपक्षी संख्या 2 ने एक प्रार्थना पत्र दिनांक 21.01.2015 प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने के लिए दायर किया, जिसके अनुसार आवेदकगण पर उद्दापन करने व उद्दापन करने के लिए किसी व्यक्ति को किसी क्षति के भय में डालने व आपराधिक अभित्रास के आरोप लगाये, जो न केवल दुष्भावना से प्रेरित थे परन्तु उनके द्वारा दायर प्रार्थना पत्र का जवाब देने के लिए व उन पर अनुचित दबाव डालने के उद्देश्य के लिए दायर किया गया था।
(ख) विद्वान अधिवक्ता ने यह भी कथन किया कि परिवाद के अन्तःवस्तु, धारा 200 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत वादी के ब्यान व धारा 202 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत अन्य गवाहों के ब्यान के आधार पर विद्वान अवर न्यायालय के पास, सम्मन करने का पर्याप्त आधार होने का उचित संतोष नहीं था। आवेदक गण के विरुद्ध प्रथम दृष्टया मामला ही नहीं बनता है। उद्दापन व उसको कारित करने के लिए किसी क्षति के भय में डालने व आपराधिक अभित्रास के तत्व, प्रथम दृष्टया भी इस मामले में उपस्थित नहीं है। अतः उपरोक्त सम्मन का आदेश व उसके क्रम में समस्त आपराधिक कार्यवाही को निरस्त किया जाना चाहिए।
वादी (विपक्षी संख्या 2) का पक्ष
विपक्षी संख्या 2 के विद्वान अधिवक्ता श्री अनमोल तिवारी ने उपरोक्त बहस का विरोध किया। उन्होने तर्क दिया कि आवेदक संख्या 1, द्वारा दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट पर अन्वेषण के उपरान्त अन्तिम रिपोर्ट दायर कर दी गयी थी। आवेदक द्वारा प्रोटेस्ट प्रार्थना पत्र दायर किया गया था। परन्तु इसके अग्रिम कार्यवाही का कोई साक्ष्य इस न्यायालय के समक्ष नहीं लाया गया है। इसके विपरीत विपक्षी 2 द्वारा दायर परिवाद, उसकी गवाही व अन्य गवाहों की ब्यानों के आधार पर आवेदकगण के विरुद्ध धारा 384, 385, 511 भा0दं0सं0 के अंतर्गत अपराध कारित करने का प्रथम दृष्टया मामला बनता है जिसमें कोई विधिक त्रुटि नहीं है इसलिये इस न्यायालय के समक्ष उसकी अन्तर्निहित शक्ति के उपयोग का कोई मामला नहीं बनता है। अतः वर्तमान प्रार्थना पत्र निरस्त किया जाये।
विद्वान अधिवक्तागणों को सुना व पत्रावली का अवलोकन किया।
5. मजिस्ट्रेटों से परिवाद व उच्च न्यायालय की अन्तर्निहित शक्तियां की विधि:-
(क) मजिस्ट्रेट से किये गए परिवाद की प्रक्रियात्मक योजना को दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (दं0प्र0सं0) के अध्याय 15 में उल्लेखित किया गया है। परिवाद दायर होने पर संज्ञान लेने वाला मजिस्ट्रेट, परिवादी की और यदि कोई साक्षी उपस्थित हो तो उसकी शपथ पर परीक्षा करेगा और ऐसा सारांश लेखबद्ध भी करेगा। यदि परिवाद लिखित रुप में किसी लोकसेवक ने अपने पदीय कर्तव्यों के निर्वहन में कार्य करते हुए या कार्य करने का तात्पर्य रखते हुए दायर किया हो या मजिस्ट्रेट मामले की जाँच या विचरण के लिए धारा 192 दं0प्र0सं0 के अधीन किसी अन्य मजिस्ट्रेट के हवाले कर दिया हो तब मजिस्ट्रेट के लिये परिवादी व साक्ष्य की परीक्षा करना आवश्यक नहीं है। अगर मजिस्ट्रेट परिवाद व साक्ष्य की परीक्षा करने के उपरान्त अन्य मजिस्ट्रेट के हवाले करता है तो बाद वाले मजिस्ट्रेट को उनकी फिर से परीक्षा करना आवश्यक नहीं है। (देखें धारा 200 दं प्र सं)। यदि लिखित परिवाद ऐसे मजिस्ट्रेट को किया गया हो, जो उस अपराध का संज्ञान करने में सक्षम नहीं है तो ऐसा पृष्ठांकन कर उसको समुचित न्यायालय में पेश करने के लिये लौटा देगा, और अगर परिवाद लिखित नहीं है, तो परिवादी को समुचित न्यायालय जाने का निर्देश देगा। (देखें धारा 201 दं प्र सं )
(ख) मजिस्ट्रेट ऐसे अपराध, जिसका संज्ञान लेने के लिए वह प्राधिकृत हो या धारा 192 के अधीन उसके हवाले किया गया हो और ठीक समझता है और ऐसे मामले जहॉं अभियुक्त का निवास उसके क्षेत्राधिकार से परे हो, तो अभियुक्त के विरुद्ध आदेशिका जारी करना मुल्तवी कर सकता है, और यह विनिश्चत करने के प्रयोजन से की कार्यवाही करने के पर्याप्त आधार हैं या नहीं, या तो मामले की जाँच स्वयं कर सकता है और अगर ठीक लगे तो साक्षी का साक्ष्य शपथ पर ले भी सकता, या किसी पुलिस अधिकारी से अन्य किसी व्यक्ति से, जिसको वो ठीक समझे ( उस व्यक्ति को वारंट के बिना गिरफ़्तार करने के सिवाय वो सब अधिकार होगे जो पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को होते है ), अन्वेषण किये जाने के लिए निर्देश दे सकता है, परन्तु अन्वेषण किये जाने के लिए निर्देश निम्न होने पर नहीं दिया जा सकता है:- जहां मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता हो, अपराध जिसका परिवाद किया गया है अनन्यत: सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है, परन्तु परिवादी से अपने साक्ष्य को पेश करने की अपेक्षा करेगा और उसकी शपथ पर परीक्षा करेगा अन्यथा जहां परिवाद न्यायालय द्वारा नहीं किया गया है, जब तक परिवादी की या उपस्थित साक्षियों की (यदि कोई हो) धारा 200 के अधीन शपथ पर परीक्षा नहीं कर ली जाती है। (देखें धारा 202 दं प्र सं )
(ग) यदि परिवादी के और साक्षियों के शपथ पर किए गये कथन पर (यदि कोई हो) और धारा 202 के अधीन जाँच या अन्वेषण ( यदि कोई है) के परिणाम पर विचार करने के पश्चात, मजिस्ट्रेट की यह राय है कि कार्यवाही करने के लिये पर्याप्त आधार नहीं है, तो वो परिवाद ख़ारिज कर देगा, व ऐसा करने के अपने कारण को संक्षेप में अभिलिखित करेगा। (देखें धारा 203 दं प्र सं) और यदि अपराध का संज्ञान करने वाले मजिस्ट्रेट की राय में कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार है तो वो धारा 204 दं0प्र0सं0 के प्रावधानों के अंतर्गत यथोचित आदेशिका जारी करेगा।
(घ) उच्चतम न्यायालय के निर्णयों की शृंखला की यह अवधारणा है, कि धारा 203 दं0 प्र0सं0, में उल्लेखित ”पर्याप्त आधार’ पर मजिस्ट्रेट की राय होने का अर्थ वो ”संतोष’ है, जितना अभियुक्त के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला बनने के लिए पर्याप्त आधार का होना हो, न कि वो ”संतोष’ जो अभियुक्त के ख़िलाफ़ दोष सिद्ध होने के लिए पर्याप्त आधार का होना होता है। आदेशिका जारी करते समय मजिस्ट्रेट को उपलब्ध साक्ष्य का मूल्यांकन का माप दंड वैसा नहीं हो सकता है, जैसा की न्यायालय विचारण के समय करता है और न ही साक्ष्य का मूल्यांकन करते समय वो मानक अपनाना है, जो मजिस्ट्रेट आरोप की विरचना के समय ध्यान में रखता है। (देखें एस0डब्लू0 पलानितकर प्रति बिहार राज्य:(2002) 1 एस0सी0सी0 241, केवल कृष्णनन प्रति सूरजभान व अन्य:(1980) सप्पली एस0सी0सी0 499)
(ङ) आदेशिका जारी करने की प्रक्रिया यांत्रिक नहीं होनी चाहिए और न ही वो अभियुक्त का उत्पीडन करने के साधन के रूप में उपयोग होनी चाहिए। आरोपियों को आपराधिक मामले में पेश होने के लिए बुलाए जाने की आदेशिका जारी करने की प्रक्रिया एक गंभीर विषय है और आदेश में विधिक विवेक का उपयोग न होना व आवश्यक विवरण की कमी को केवल, प्रक्रियागत अनियमितता नहीं माना जा सकता है। (देखें बिरला कॉरपोरेशन लिमिटेड प्रति एडवेन्टेज इन्वेस्टमेन्ट व होल्डिंग लिमिटड (2019) 16 एस0सी0सी0 610)
(च) किसी आपराधिक कार्यवाही को रद्द तभी किया जा सकता, जब परिवाद व साक्षियों के ब्यान का विवरण किसी अपराध को उद्घाटित नहीं करता है, या शिकायत निरर्थक हो और केवल अपराधी को परेशान या उस पर अत्याचार करने के लिए करी गयी हो। परन्तु परीक्षण के दौरान उपलब्ध बचाव या वो तथ्य जो परीक्षण के अन्त में दोषरहित होने का कारण बन सकते हो, उनके आधार पर परिवाद निरस्त नहीं किया जा सकता है। आपराधिक शिकायतों को केवल इस आधार पर भी समाप्त नहीं किया जा सकता है कि उसमें लगाए गए आरोप दीवानी प्रकृति के हैं, यदि कथित अपराध के तत्व शिकायत में प्रथम द्रष्टव्य उद्घाटित होते हो। उच्च न्यायालय को अपने अन्तर्निहित शक्ति का उपयोग, मजिस्ट्रेट के न्यायिक विवेकाधिकार को अपने न्यायिक विवेकाधिकार से प्रतिस्थापित करने हेतु यह जांच नहीं करनी चाहिये कि क्या परिवाद में उल्लेखित आरोप अगर सिद्ध हो जाते हैं तो क्या अपराधी को सजा मिल जायेगी। ऐसी जांच धारा 202 द0प्र0सं0 के अन्तर्गत कि जाने वाली जांच प्रक्रिया की योजना से अभिन्न है।
(छ) यदि परिवाद व साक्षियों के ब्यान में लगाये गये अविवादित आरोप से किसी भी अपराध का कृत्य का होना प्रकट नहीं होता हो या अपराध के आवश्यक अवयव उपस्थित नहीं हो या परिवाद किसी विधिक प्रावधान के कारण बाधित या निषेध हो तो इन परिस्थितियों में उच्च न्यायालय अन्तर्निहित शक्तियों का उपयोग कर आदेशिका निरस्त कर सकती है। परन्तु यह ध्यान में रखना होगा कि इन असधारण शक्तियों का दायरा तो व्यापक है, परंतु इसका उपयोग संयम् एवम् सावधानीपूर्वक ही करना चाहिए। (देखें श्रीमती नागव्वा प्रति विरन्ना शिवलिंगगप्पा कोंजाल्गी व अन्य (1976) 3 एस0सी0सी0 736, माधवराव जीवाजीराव सिंधिया व अन्य प्रति सम्भाजीराव चन्द्रोजीराव अंगरे व अन्य (1988)। एस0सी0सी0 692, कमल शिवाजी पोकामेकर प्रति महाराष्ट्र राज्य व अन्य (2019) 14 एस0सी0सी0 350)
विश्लेषण एवं निष्कर्ष
उपरोक्त विधि विश्वलेषण की पृष्ठभूमि में वर्तमान प्रकरण के तथ्यों के आधार पर, यह निर्धारित करना है कि क्या परिवाद के कथन व साक्षियों के ब्यान से, आवेदकगण द्वारा धारा 384, 385, 511 भा0दं0सं0 के अन्तर्गत प्रथम दृष्ट्या अपराध कारित होना प्रतीत होता है या नहीं अथवा किसी अन्य विधिक कारण से आदेशिका निरस्त की जा सकती है।
7. आवेदक के विद्वान अधिवक्ता का सर्वप्रथम तर्क है कि उनके द्वारा धारा 156 (3) की प्रक्रिया के लिए प्रार्थना पत्र दिनांक 5.1.2015 के माध्यम से एक प्रथम सूचना रिपोर्ट दिनांक 29.03.2015 विपक्षी संख्या 2 व उसके परिवार के विरुद्ध दर्ज करवाई। विपक्षी संख्या 2 ने इसका जवाब देने हेतु व आवेदक पर दबाव बनाने के लिए धारा 156 (3) की प्रक्रिया के लिए प्रार्थना पत्र दिनांक 21.01.2015 (आवेदक के प्रार्थना पत्र के तुरंत बाद) दायर किया जिस पर आदेशानुसार परिवाद वाद दर्ज हुआ जिसके क्रम में धारा 200 व 202 दं0प्र0सं0 के ब्यानों के आधार पर आवेदकगण को सम्मन की आदेशिका पारित की गयी।
इस स्तर पर यह ध्यान देना आवश्यक है कि आवेदकगण द्वारा उनके द्वारा दिये गये प्रार्थनापत्र पर आदेश के उपरान्त दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट पर अन्तिम रिपोर्ट आने के बाद उनके द्वारा दायर प्रोटेस्ट प्रार्थना पत्र पर पारित आदेश व वर्तमान में अन्वेषण यदि कोई हुआ है तो उसकी वर्तमान स्थिति के सम्बन्ध में न तो कोई कथन ही कहा गया है और न ही इस सम्बन्ध में कोई दस्तावेज पत्रावली पर उपलब्ध है। जबकि विपक्षी संख्या 2 के द्वारा दाखिल प्रार्थना पत्र को परिवाद मानते हुए दं0प्र0सं0 के अन्तर्गत कार्यवाही करते हुए वर्तमान में सम्मन आदेशित किया गया है, अतः आवेदक गण का कथन/तर्क कि समस्त कार्यवाही केवल आवेदकगण पर दबाव डालने के लिए की गयी है, सत्य प्रतीत नहीं होता है। अतः यह तर्क अस्वीकार किया जाता है।
8. अब न्यायालय को यह निर्धारित करना है कि अवर न्यायालय द्वारा आवेदकगण के विरुद्ध आदेशिका पारित करने में कोई वैधानिक त्रुटि हुई है या नहीं। इसके लिए सर्वप्रथम धारा 383, 384, 385 व 506 भा0दं0सं0 का उल्लेख करना आवश्यक है जो निम्न है।
“383. उद्दापन- जो कोई किसी व्यक्ति को स्वयं उस व्यक्ति को या किसी अन्य व्यक्ति को कोई क्षति करने के भय में साशय डालता है, और तद्द्वारा इस प्रकार भय में डाले गए व्यक्ति को, कोई सम्पत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति या हस्ताक्षरित या मुद्रांकित कोई चीज जिसे मूल्यवान प्रतिभूति में परिवर्तित किया जा सके, किसी व्यक्ति को परिदत्त करने के लिए बेईमानी से उत्प्रेरित करता है, वह “उद्दापन” करता है।
384. उद्दापन के लिए दण्ड- जो कोई उद्दापन करेगा वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जायेगा।
385. उद्दापन करने के लिए किसी व्यक्ति को क्षति के भय में डालना- जो कोई उद्दापन करने के लिए किसी व्यक्ति को किसी क्षति के पहुँचाने के भय में डालेगा या भय में डालने का प्रयत्न करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जायेगा।
506. आपराधिक अभित्रास के लिए दण्ड- जो कोई आपराधिक अभित्रास का अपराध करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।
यदि धमकी मृत्यु या घोर उपहति इत्यादि कारित करने की हो- तथा यदि धमकी मृत्यु या घोर उपहति कारित करने की, या अग्नि द्वारा किसी सम्पत्ति का नाश कारित करने की या मृत्यु दण्ड से या आजीवन कारावास से, या सात वर्ष की अवधि तक के कारावास से दण्डनीय अपराध कारित करने की, या किसी स्त्री पर अस्तित्व का लांछन लगाने की हो, तो वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जायेगा।”
9. धारा 383 भा0दं0सं0 में उद्दापन के अपराध का विवरण दिया गया है, जिसके अनुसार इस अपराध के आवश्यक अवयव हैं:- (I) अपराधी, किसी व्यक्ति को स्वयं उस व्यक्ति को या अन्य व्यक्ति को कोई क्षति करने के भय में डालता है। (ii) क्षति करने का भय साशय हो, (iii) अपराधी उस भय में डाले गये व्यक्ति को कोई संपत्ति या मूल्यवान या हस्ताक्षरित या मुद्रांकित कोई चीज जिसे मूल्यवान प्रतिभूति में परिवर्तित किया जा सके, किसी व्यक्ति को परिदत्त करने के लिए बेइमानी से उत्प्रेरित करे।
10. उच्चतम न्यायालय ने इसाक इसांगा मुसुम्बा व अन्य प्रति महाराष्ट्र शासन व अन्य : (2014) 15 एस.सी.सी. 357 के मामले में उद्दापन के अवयव पर विचार किया और यह अवधारित किया कि जब तक अपराधी द्वारा उसको या अन्य व्यक्ति को साशय क्षति पहुँचाने के भय के कारण व उसके द्वारा बेइमानी से उत्प्रेरित होकर कोई संपत्ति या मूल्यवान या हस्ताक्षरित या मुद्रांकित कोई चीज, जिसे मूल्यवान प्रतिभूति में परिवर्तित किया जा सके, किसी व्यक्ति को प्रदान न हो गयी हो, तब तक उद्दापन का अपराध पूर्ण नहीं हो सकता है।
11. वर्तमान प्रकरण में अविवादित रुप से मृतका ने अपनी माता (आवेदक सं0 1) से क्रय की गयी भूमि को वापस नहीं किया है, जो आपराधिक परिवाद व धारा 200 व 202 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत दर्ज ब्यानों के परिशीलन से भी पूर्ण रुप से परिलक्षित होता है। अतः वर्तमान प्रकरण में उद्दापन के समस्त अवयव, प्रथम दृष्टया भी पूर्ण नहीं होते हैं। अतः वर्तमान प्रकरण में उद्दापन (धारा 383 भा0दं0 सं0) का कोई अपराध प्रथम दृष्टया भी नहीं प्रकट होता है। अतः उसे धारा 384 भा0दं0सं0 के अन्तर्गत सजा होने के भी प्रथम दृष्ट्या मामला नहीं बनता है।
12. अब न्यायालय को यह देखना है क्या धारा 385 भा0दं0सं0 (उद्दापन करने के लिए किसी व्यक्ति को क्षति के भय में डालना) का अपराध क्या पत्रावली पर उपस्थित आपराधिक परिवाद, धारा 200 व 202 दं0प्र0सं0 के ब्यान के मद्देनजर प्रथम दृष्टया बनता है या नहीं। आपराधिक परिवाद व वादी व गवाहों के ब्यानों में यह कथन किया गया है कि आवेदकगण वादी की पत्नी पर जमीन पुनः उनके नाम करने का दबाव देने लगे और मानसिक व शारीरिक रुप से उसको प्रताड़ित करने लगे।
13. धारा 385 के अवयव उद्दापन का प्रयास करते हुए किसी व्यक्ति को किसी क्षति के भय में डालने या डालने का प्रयत्न करने का अपराध को वर्णित करते हैं। वर्तमान प्रकरण में आपराधिक परिवाद, धारा 200 व 202 दं0प्र0सं0 के ब्यानों से प्रथम दृष्टया वादी की पत्नी को उद्दापन करने का प्रयास करते हुए उसको मानसिक व शारीरिक प्रताड़ना पहुँचाना कहा गया है। परन्तु इस नाते कैसे उसको भय में डालने या डालने का प्रयत्न करने का कोई विनिष्ठ साक्ष्य या कथन पत्रावली पर उपस्थित नहीं है और न ही यह कथन किया गया है कि क्या मानसिक या क्या शारीरिक प्रताड़ना पहुंचायी गई थी। अतः वर्तमान प्रकरण में धारा 385 भा0दं0 सं0 के अवयव प्रथम दृष्टया उपस्थित न होने के कारण इस अपराध के कारित होने का मामला भी नहीं बनता है। इसी प्रकार धारा 506 भा0दं0सं0 के भी अवयव भी उपस्थित न होने के कारण भी उस अपराध के घटित होने का प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता है।
14. जैसा की पूर्व में विश्लेषण किया गया है कि यदि परिवाद व साक्षियों के ब्यान में लगाये गये अविवादित आरोप से किसी भी अपराध का कृत्य का होना प्रकट नहीं होता हो या अपराध के आवश्यक अवयव उपस्थित नहीं हो तो यह न्यायालय अपनी अन्तर्निहित शक्तियों का उपयोग करते हुए आदेशिका (सम्मन) निरस्त कर सकता है।
15. अतः उपरोक्त विश्लेषण का एक ही परिणाम है कि यह आवेदन स्वीकार करने योग्य है तद्नुसार स्वीकार किया जाता है तथा आक्षेपित आदेश दिनांक 27.02.2017 जो ए0सी0एम0 द्वितीय, कानपुर नगर द्वारा परिवाद संख्या-776/15, रमाशंकर बनाम श्रीमती लक्ष्मी देवी आदि, अन्तर्गत धारा-384, 385, 506 भा0द0सं0 के मामले में पारित किया गया है, निरस्त किया जाता है।